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अस्तित्वम् तत् सत्।

It is written in Manusmriti “Dharmo Rakshati Rakshitah”, which means “Dharma protects the one who protects Dharma”.

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अस्तित्वम् फाउंडेशन द्वारा उत्तराखंड राज्य में किया जा रहा है काष्ठ नक्काशी कलाविधा ‘तिबारी’ का संरक्षण।

तिबारी | काष्ठ नक्काशी कला | उत्तराखंड

भारतवर्ष के समस्त पूंजीपति राज्यों की भांति उत्तराखंड राज्य भी कला, संस्कृति तथा आध्यात्म के क्षेत्र में सर्वदा ही पूंजीपति रहा है। कला की मुख्य विधाओं में से एक प्रकार की समृद्ध विधा काष्ठ-नक्काशी है, जिसका प्रयोग विगत सदी में उत्तराखंड राज्य में पारंपरिक भवन निर्माण हेतु विस्तृत रूप से किया जाता था।

“तिबारी” काष्ठ नक्काशी कला की एक अद्वितीय विधा है, जिसका प्रयोग भवन निर्माण में प्रयुक्त होने वाले काष्ठ द्वारों, काष्ठ वातायनों तथा काष्ठ स्तंभों के सौंदर्यीकरण हेतु किया जाता था। विगत सदी के दृष्टा कुछ राज्यवासी बुजुर्ग जनों के अनुसार तिबारी का साधारण अर्थ ‘तीन बारी’ से है। देहली/चौखट में प्रयुक्त काष्ठ स्तंभ तीन भिन्न-भिन्न भागों में होते थे। तीनों की नक्काशी भी भिन्न-भिन्न विधाओं में अथवा भिन्न-भिन्न कलाकारों द्वारा की जाती थी। नक्काशी कार्य समाप्त हो जाने के बाद उन तीनों खांचों को आपस में एक-दूसरे से सटाकर बांई, दांई तथा ऊपरी दीवार से जोड़ दिया जाता था। हिंदी, कुमाऊनी, गढ़वाली तथा जौनसारी भाषाओं में तिबारी का प्रत्यक्ष अर्थ उपलब्ध नहीं है। परंतु आम बोलचाल की भाषा के अनुसार “तिबारी” का अर्थ “तीन बारी” से लगाया जा सकता है।
किसी भी भवन का मुख्य द्वार उसको शोभायमान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और उस मुख्य द्वार को तिबारी वास्तुकला के अनुसार बनाया जाना उत्तराखंड राज्य की अद्वितीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। अभियांत्रिकी तथा वास्तुकला के अद्भुत संयोजन के समृद्ध उदाहरण इन पारंपरिक भवनों को मुख्यतया पत्थर, लकड़ी, धातु, मृदा तथा गोबर इत्यादि से निर्मित किया जाता रहा है। तिबारी में प्रयुक्त काष्ठ खंभों पर नक्काशी के माध्यम से भिन्न-भिन्न आकृतियां उकेरी जाती थी, जिन्हें वास्तुशास्त्र के अनुसार बनाया जाता था। इन आकृतियों में गणेश-सिंह-अश्व-गंदर्भ, यक्ष-यक्षिणी, सर्प-सर्पिणी, योग-योगिनी, पशु-पक्षी तथा फूल-पत्ती (वनस्पति) इत्यादि प्रमुख हैं।
राज्य में तिबारी शैली का निर्माण काल बाखली शैली के निर्माण काल से भी पूर्व-पुरातन माना जाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गोपीनाथ मंदिर तथा नरसिंह मंदिर के पास निर्मित परंपरागत मकानों में प्रयुक्त तिबारियां हैं, जिनका निर्माण कत्यूरी शासन में किया गया था तथा राज्य में कत्यूरी वंश के उपरांत चंद वंश के शासनकाल में परंपरागत बाखली शैली में भवनों का निर्माण कार्य आरंभ हुआ।

अस्तित्वम् फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री विवेक चंद्र बिष्ट के अनुसार “यदि काष्ठ नक्काशी युक्त दरवाजों तथा खिड़कियों पर प्लॉक्सी/ग्लॉस, लिनसीड ऑयल, इनेमल पेंट, ईपॉक्सी, वंडरवुड इत्यादि की एक परत (लेयर) को वर्ष में एक बार भी लकड़ी की सतह पर भलीभांति लगा लिया जाय तो भवन निर्माण में प्रयुक्त लकड़ी की आयु को निश्चित रूप से बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार परंपरागत भवनों के संरक्षण के साथ ही समृद्ध संस्कृति का भी संरक्षण किया जा सकेगा।
अस्तित्वम् फाउंडेशन द्वारा समय के साथ विलुप्त होती कलाशैलियों तथा कलाविधों के प्रोत्साहन तथा संरक्षण हेतु कार्य किया जा रहा है। पारंपरिक मकानों, प्राचीन जल संसाधनों, हस्तनिर्मित यंत्रों, हस्तशिल्प उद्योगों तथा समृद्ध संस्कृति को सहेजने हेतु जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है ताकि इस विरासत को आगामी पीढ़ियों तक साझा किया जा सके।

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